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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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हस्तक्षेप

अनिल

नागरिक आजादी आंदोलन तथा जनसंघर्शों का व्यापक सन्दर्भ

‘‘ स्वतंत्रता एक ऐसी शक्ति है जो कभी किसी अन्य के अधिकारों को कोई क्शति नहीं पहुँचाती।’’
-1789 का फ्रांसीसी घोशणापत्र

‘‘कोई भी स्वतंत्र व्यक्ति अपने अधिकारों को ‘प्रकृति के कानून’ द्वारा प्रदत्त। निर्धारित होने का दावा करता है, न कि वह उसे किसी न्यायाधीश द्वारा दिए गए उपहार की तरह मानता है।’’
-थामस जैफरसन

नागरिक अधिकार आंदोलन की माँग, उसकी इच्छायें, विभिन्न ऐतिहासिक सन्दर्भों में अलग-अलग रही हैं। बावजूद इसके तमाम युग की प्रक्रियाओं तथा कार्यप्रणालियों के बीच जो एक मूलभूत सैद्धांतिक आर्दश था वह यह कि ‘तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक संरचनाओं में व्याप्त विसंगतियों, उससे उत्पन्न विकृतियों के बारे में लोगों को जागरूक बनाना। इस अर्थ में नागरिक अधिकार आंदोलन लोगों को ‘प्रबोधित’ करता है और लोगों को ‘जनता’ की सक्रिय भूमिका के निर्वहन के लिए तैयार करता है।

नागरिक आजादी अंदोलन; ‘ऐतिहासिक परिपेक्श्य’

भारत में नागरिक अधिकार आंदोलन के उदय को औपनिवेशिक भारत तथा व्यापक रूप से उत्तर-औपनिवेशिक भारत की राजनीतिक प्रणाली के व्यापक संदर्भ में समझा जा सकता है। गौरतलब है कि उत्तर-औपनिवेशिक भारत का राजनीतिक लोकतंत्र पश्चिम के उदारवादी ढाँचों से प्रभावित तथा संस्थानिक रूप से उसी से संचालित हो रहा था। इसलिए नागरिक अधिकार आंदोलन भारत की मुख्यधारा के राजनीतिक विमर्श से नितांत भिन्न है।

उत्तर औपनिवेशिक भारत में संवैधानिक तौर पर ‘लोकतंत्र’ को स्वीकार किए जाने के बाद भी भारत की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में कई विसंगतियाँ मौजूद रहीं जिसकी अनिवार्य विध्वंसक परिणति बाद के वर्शो में हुई। पश्चिम के उदारवादी सत्ता संरचना से उधार लिए गये मूल्य -मान्यताओं के कारण भारत तथा पश्चिम के नागरिक समाज के उदय, उनकी मान्यताओं तथा प्रभावों में कुछ मूलभूत अंतर हैं। भारतीय समाज के ढाँचे तथा इसके राजनीतिक अर्थशास्त्र ने यहाँ लोकतंत्र को पश्चिम से नितांत भिन्न रूप प्रदान किया है। यह भिन्नता ‘नागरिकों के अधिकार’ की अवधारणा को लेकर सबसे प्रमुख है जो किसी भी उदारवादी लोकतंत्र के केन्द्रीय महत्व का तत्व होता है। कुछ अन्य संरचनागत् विसंगतियों जैसे भारतीय राज्य सत्ता तथा नागरिक समाज के संबंध, जो कि ऐतिहासिक तौर पर औपनिवेशिक पंरपरा से आए है, के बारे में अलग से चर्चा की जरूरत है। पश्चिम के उदारवादी ढाँचों तथा भारतीय राज्य के संस्थानों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा यहाँ मौजूद विसंगतियों का व्यवस्थित अध्ययन किया जा सकता है।

पहली प्रमुख विसंगति आधुनिक उत्तर औपनिवेशिक भारतीय राज्य तथा जाति, धर्म, भाशा, नस्ल जनजाति, विशिश्ट भूभाग तथा लिंग पर आधारित भेदभाव तथा संस्तरीकरण पर टिके हुए भारतीय सामाजिक ढाँचे के बीच गहरी असंबद्धतता है। आम चुनाओं में युवाओं को हिस्सा लेने की अनुमति देने वाला यह गणतांत्रिक संविधान भारत में राजनीतिक लोकतंत्र के उदय से ही, भारतीय राजनीति में जारी ‘परंपरा तथा आधुनिकता’ के बीच लगातार विवाद के कारण विरासत में प्राप्त दोहरेपन का शिकार रहा। जिसे एक राजनेता ने ‘इंडिया बनाम भारत‘ के रूप में व्याख्यायित किया है। (जोशी 1989)

दूसरी विसंगति राज्य सत्ता के ढाँचे- एक तरफ औपनिवेशिक कालीन पुलिस, खुफिया, सैन्य संस्थान और दण्ड सहिता तथा दूसरी तरफ तनावों को कम करने वाले लोकतांत्रिक संस्थानों का बेहद कमजोर होना है। गणतांत्रिक संविधान ने इन दोनों को यथोचित स्वरूप में ढालकर एक तरह की भ्रमपूर्ण लोकतंात्रिक वैधानिकता प्रदान कर दिया।

तीसरी प्रमुख विसंगति भारत में राजनीतिक लोकतंत्र के विशिश्ट ऐतिहासिक क्रम के कारण नागरिक अधिकारों के बारे में मौजूद लोकतांत्रिक चेतना के संर्कीण सामाजिक आधार हैं।

इन विसंगतियों के जन्म के विशिश्ट ऐतिहासिक चरण तथा विकास की पूरी एक प्रक्रिया है। लोकतांत्रिक संर्कीण सामाजिक आधारों के निर्माण का प्रमुख कारण अखिल भारतीय स्तर पर लंबे समय तक किसी व्यापक सामाजिक राजनीतिक आंदोलन का आस्तित्व में न होना है। एक और महत्वपूर्ण बात है, भारत तथा पश्चिम के बीच ‘राश्ट्र राज्य’ बनने की प्रक्रिया में धर्मनिरपेक्शता एक केन्द्रीय विचार के तौर पर उभरा। इंग्लैड (1640) तथा फ्रांस(1789) की क्रांतियों का प्रमुख नारा ही ‘राजा नहीं, पोप नहीं’ था। जबकि भारत में औपनिवेशिक राज्य ने राश्ट्रीय आंदोलन के दौरान चरण पर पहुँच सांप्रदायिक सद्भाव को विकृत किया और धार्मिक कठमुल्लापन को प्रत्यक्श अप्रत्यक्श तौर पर मजबूत किया। इसी कारण उत्तर औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिक हिंसा ने जोर पकड़ा और संवैधानिक गणतंत्र के जन्म की पृश्ठभूमि से ही धर्म आधारित व्यापक नरसंहार शुरू हो चुके थे और इस आधार पर देश का विभाजन हो चुका था।

इसके अतिरिक्त भारत के चुनावी परिदृश्य तक सीमित लोकतंत्र से दलित, आदिवासी महिलायें अल्पसंख्यक तथा बच्चे मूलभूत अधिकारों से सदैव वंचित रहे। वास्वत में संरचनात्मक ठोस विकास भारत में कभी हो ही नहीं पाया। उत्तर औपनिवेशिक भारतीय अर्थव्यवस्था को एक आर्थिक इतिहासकार ने निम्न तरह से देखा है ‘ब्रिटिश सम्राज्यवाद ने भारतीय सामाजिक संरचना का इस तरह से विकास किया कि इसका एक आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के रूप में उत्थान होना लगभग असंभव हो गया।’’ (बागची 1973)

इन सभी घटनाओं के स्पश्ट कारण तथा प्रभाव आसानी से देखे जा सकते है। जहाँ संवैधानिक मूल्यों को दूसरे देशों से ग्रहण कर लिया गया वहीं शासन व्यवस्था के आधार अब तक औपनिवेशिक बने हुए थे। भारत में नागरिक अधिकार आंदोलन राजनीतिक प्रक्रियाओं की इन्हीं विशिश्ट जटिलताओं का शिकार रहे हैं। साम्राज्यवाद ने लोगों को न सिर्फ राजनीतिक तथा आर्थिक तौर पर गुलाम बनाया बल्कि उसने सबसे पहले लोगों की मानसिकता को ही औपनिवेशिक बना दिया। भारत समेत पूर्व में साम्राज्यवादी उत्पीड़न से प्रभावित तमाम देश अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके हैं। (न्गुगी वा थियोंगो) ‘औपनिवेशिक सत्ता ने भारत के भूगोल में अकाल सृजित किए तो उसने बौद्धिक बंजरता का भी बकायदा इंतजाम किया। अंग्रजी राज की प्रोजेक्ट एक न सोचता हुआ समाज बनाने का था।’ (देवी प्रसाद मिश्र, पहल 82) अंग्रेजों के प्रत्यक्श राजनीतिक नियंत्रण की समाप्ति के बाद राश्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के मुख्यधारा के नेताओं में सत्ता का हस्तांतरण हुआ जिन्होंने औपनिवेशिक संस्कृति, कार्यपद्धति तथा समाज के गहरे में जड़ जमायी विकृतियों पर प्रहार नहीं किया। ‘राश्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के नेतृत्वकारी तबके ने उत्तर औपनिवेशिक भारत में राज्य और पुनर्जागरण के गठजोड़ करने के प्रयाास को सदैव टाला। इस वर्ग ने बौद्धिक तौर पर साकांक्श मनुश्य नहीं निर्मित होने दिया। सैंद्धातिक तौर पर ‘जनप्रतिनिधि’ के सिद्धांतों पर भरोसा रखने वाले इस आंदोलनकारी नेतृत्व ने संसद को धंधेबाजों, बिचैलियों, सामंतों की आरामगाह बना दिया। स्थानीय पहनकदमी को आग्र बढ़ाने के बजाय अंग्रेजों द्वारा ही निर्धारित नौकरशाही के संस्तरीकरण को जस का तस लागू कर दिया। यह तंत्र बौद्धिक तौर पर अक्शम, पहलहीन, शिथिल और लोलुप था।’ (देवी प्रसाद मिश्र, पहल 82) ऐसे में नागरिक अधिकारों के प्रति व्यापक तथा विस्तृत जनचेतना विकसित ही नहीं हो सकी।

नागरिक अधिकारों की उत्पत्ति के स्त्रोत

दुनिया के स्तर पर मनुश्य की आजादी की सर्वसुलभ सुनिश्चितता का विकास यूरोपीय राज्य व्यवस्थाओं में हुआ। किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के तीन प्रमुख तत्व हैं - (1) अभिव्यक्ति की आजादी (2) बिना अपराधिक कारण के कैद से आजादी तथा (3) हिरासत में यातना से आजादी। (राय 2003) आजादी के इन आधारों को वैधानिक होने के लिए लंबा काल तय करना पड़ा। संवैधानिक तंत्र में राज्य द्वारा नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों की वैधानिकता का विकास उदारवादी गणतंत्र के विकास की बुनियाद थी जो युरोप से शुरू होकर पूरी दुनिया में मानवता की विरासत का अभिन्न अंग बन गयी। इंग्लैंड में मैग्ना कार्टा (1215) अधिकारों की याचिका (1627) और अधिकारों का कानून (1688) तथा फ्रांसीसी राज्य क्रांति के बाद वहां की राश्ट्रीय सभा (1789) द्वारा मनुश्य तथा नागरिक अधिकारों के घोशणा पत्र (1791) की स्वीकार्यता दुनिया में तमाम तरह के उत्पीड़न के खिलाफ संघर्श की पूरे मानव समुदाय की धरोहर है। नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों की यह वैधानिकता आधुनिक मानवाधिकारों के संकल्पना की पहली पीढ़ी है जो मनुश्य के आस्तित्व पर विश्वास रखती है।

समाजवादी क्रांतियों के बाद जीवन की मूलभूत जरूरतों संबंधी अधिकारों को मान्यता मिली। यहां से मानवधिकारों की दूसरी पीढ़ी का जन्म हुआ जिससे नागरिक अधिकारों की अवधारणा में व्यापकता आई। उस वक्त शुरू हुए मनुश्य के अहम तथा व्यक्तिवादी प्रवृतियों को बढ़ाने वाले अधिकारों के विमर्श के समानांतर समाजवादी अभिप्रयोजनों से संचालित आर्थिक तथा समाजिक अधिकारों ने नागरिक आजादी में गुणात्मक विकास किया। सोवियतसंघ द्वारा अधिकारों के सोवियत कानूनों की स्वीकार्यता से इन अधिकारों की स्थापना करना अब राज्य का दायित्व बन गया। सोवियत सत्ता के बिखराव के बाद भी नागरिक आजादी की ये अवधारणायें लोगों के जेहन में शेश रह गयी है।

समाजवादी संरचनाओं ने साम्राज्यवादी उत्पीड़न से दबे राश्ट्रों को आत्म निर्णय के अधिकारों को मान्यता प्रदान किया। चीन की क्रांति औपनिवेशिक दासता से पीड़ित राश्ट्रों के लिए मुक्ति का प्रेरणा स्त्रोत बनी। समाजवादी राज्यों ने बिना किसी शर्त के साम्राज्यवादी वर्चस्वों का विरोध किया।

संयुक्त राश्ट्र संघ की महासभा में 10 दिसंबर 1948 को मनावाधिकारों के वैश्विक घोशणा पत्र को स्वीकार किया गया। इससे यह धारणायें और समृद्ध हुई। भारत का राश्ट्रीय अंादोलन अभी चल ही रहा था और संविधान निर्माण की प्रक्रिया अभी गतिमान थी। भारतीय संविधान निर्माण प्रक्रिया का यह एक गतिरोध ही था कि मानवाधिकारों की पहली पीढ़ी को मौलिक अधिकारों के रूप में सुनिश्चिता प्रदान की गई जबकि दूसरी पीढ़ी के अधिकतर अधिकारों पर न्यायालयीन हस्तक्शेप द्वारा लागू कराने से रोक लगा दी गई और उन्हे संविधान के चैथे भाग में नीतिनिर्देशक तत्वों के बतौर रख दिया गया। मानवाधिकार विमर्श की वर्तमान शब्दावली में दोनों पीढ़ी के अधिकार मिलकर जनवादी अधिकार के नाम से जाने जाते है।

पिछली सदी के छठे दशक में साम्राज्यवादी उत्पीड़न के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूटा और युद्ध विरोधी आंदोलनों (विशेश कर वियतनाम युद्ध) ने लोगों को अन्य कई असमानता मूलक मुद्दों जैसे पर्यावरण, बालश्रम, शरणार्थी अधिकार, अल्पसंख्यक, नस्ल, लिंग तथा जाति आधारित भेदभाव तथा सभी तरह की यातनाओं के खिलाफ संघर्श के लिए प्रेरित किया। संयुक्त राश्ट्र संघ में भी इन मुद्दों को सैद्धंातिक तौर पर स्वीकार किया गया। नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों का घोशणा पत्र (1966), आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकार (1966), विकास का अधिकार(1986), यातना विरोधी अधिकार(1986), लिंग भेदभाव के खिलाफ अधिकार(1979) तथा बाल अधिकार(1989) आदि की स्वीकार्यता से स्पश्ट होता है कि नागरिक आजादी से लोगों कि व्यापक आकांक्शायंे जुड़ी हुई है।

बहुत सारे संप्रभु राश्ट्र द्वारा इन वैश्विक कानूनों के पालन पर सहमति सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्तर पर बढ़ती लोकतांत्रिक जनचेतना की उत्कंठा को दर्शाती है लेकिन कई राश्ट्र इनका ईमानदारी से क्रियान्वयन करने में पूरी इच्छा शक्ति से कभी शामिल नहीं हुये। भारत में नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों के सयुक्त राश्ट्र के मसौदे (1966) पर 1976 में आपात काल के दौरान हस्ताक्शर किया जबकि संविधान द्वारा निर्धारित सभी प्रकार के नागरिक अधिकारों को बर्खास्त किया जा चुका था। इन मसौदों की घोशणा के बाद भी संयुक्त राश्ट्र संघ में अपना दबदबा बनाये रखने वाले देशों ने दुनिया के विभिन्न कोनों में नागरिक आजादी को भयंकर क्शति पहुँचाया। विशेश कर तीसरे देशों में आर्थिक नीतियों द्वारा घुसपैठ कर के तथा उनकी सफलता के लिए पश्चिमी सैन्य गुटों ने राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर भयंकर उथल पुथल को अंजाम दिया और तबाही करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा।

अमरीकी सेना के नेतृत्व में संचालित किये जाने वाले युद्धों का उदाहरण सबके सामने है जब अपना वर्चस्व कायम करने के लिए तथा अमेरीका विरोधियों को नेस्तनाबूद करने के लिए अमेरीका ने प्रत्यक्श-अप्रत्यक्श सैन्य आक्रमणों द्वारा उस देश को बरबाद कर दिया।

उत्तर औपनिवेशिक भारतीय राजसत्ता ने नागरिक अधिकारों को ईमानदारी पूर्वक कभी भी नहीं लागू किया। आपातकाल इसका चरम था। एक तरफ राश्ट्रीय सुरक्शा के नाम पर बिना कोई मुकदमा चलाये कैद, गिरफ्तारियाँ, समाचार पत्रों पर पाबंदी, व्यक्तिगत सूचनाओं को सार्वजनिक कर दंडित करना, टेलीफोन की टेपिंग आदि करते हुए जीवन की मूलभूत स्वतंत्रता का भयकर हनन जारी था तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री ने सयुक्त राश्ट्र के उस दस वर्शीय मसौदे पर हस्ताक्शर किया जिसमें ‘नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों’ की राज्य द्वारा सुनिश्चितता का प्रावधान था। यह देश भर में उठ रही व्यापक जनतांत्रिक चेतना को मजबूत करने के लिए नहीं बल्कि अंतराश्ट्रीय स्तर पर जारी उदारवादी आलोचना को शांत करने का कदम था। उसी के समानांतर हजारों लोग राज्य मशीनरी की तानाशाही के खिलाफ संगठित हुए और नागरिक अधिकारों को बहाल करने तथा उन पर स्वायत्त निगरानी रखने के लिए नागरिक अधिकार आंदोलन का सूत्रपात किया। इस नागरिक अधिकार आंदोलन को अंतरराश्ट्रीय स्तर के नागरिक अधिकार समूहों से समर्थन मिला। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की अवधारणा बौद्धिक स्तर पर भले ही पश्चिम के एैतिहासिक अनुभवों से आई हो लेकिन नागरिक अधिकार आंदोलनों की उत्पत्ति किसी भी रूप में पश्चिम से प्रभावित नहीं थी। सैद्धंातिक तौर पर हलाँकि मानवाधिकार, जनवादी, मौलिक तथा नागरिक अधिकार इन सभी की की अवधारणा अलग अलग है लेकिन अब एक दूसरे के पूरक के रूप में प्रयोग किये जाते है। भारत में आपात काल के ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ ने इन्हे नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के परिप्रेक्श्य में ही देखा समझा गया था लेकिन नागरिक आजादी के आधुनिक संदर्भो ने इनको वैश्विक स्तर पर विस्तृत दृश्टिकोण दिया है।

भारतीय संविधान में वर्णित अधिकार

एक विसंगति के बतौर उत्तर औपनिवेशिक भारत में स्वीकार किये गए संविधान के मूल्यों तथा भेेदभाव और असमान सामाजिक संरचनाओं पर टिके भारतीय समाज के बीच अंतरविरोध का जिक्र हम पहले कर चुके है। उत्तर औपनिवेशिक भारत में लोगों के बीच लोकतांत्रिक जनचेनता का इस तरह विकास ही नहीं हुआ कि आधुनिक मूल्यबोधों को लोग व्यापक तौर पर सहज भाव से स्वीकार कर सके। साम्राज्यवादी सत्ता से लड़ते हुए राश्ट्रीय आंदोलन के मुख्य धारा के नेता तथा बुद्धिजीवी अल्पसंख्यक समूहों, आदिवासियों, दलितों तथा महिलाओं की विशाल आबादी को राश्ट्रीय परिधि मे नहीं ला सके। (हलाँकि साम्राज्यवाद विरोधी इस संघर्श में सभी समुदायों ने अपना बलिदान दिया था।) इस स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सभी नागरिकों को समान अधिकार की माँग भी देर से उठी।

व्यक्ति के अधिकारों के प्रति अनुभव तथा जागरूकता की कमी के कारण उत्तर औपनिवेशिक भारत में यह संकट लगातार इसलिए बना रह क्यांेकि बुनियाद ही मजबूत नहीं थी। ‘संपत्ति तथा विशिश्ट योग्यताओं’ के आधार पर चुने गये सदस्यों से गठित संविधान सभा व्यक्ति के अधिकारों तथा उसकी गरिमा की सुरक्शा की गारंटी के लिए लोकप्रिय तथा सहज तरीके नहीं ईजाद कर सकी। संविधान निर्माण की प्रक्रिया के बाद भी कुछ प्रमुख द्वन्द बने रहे। इस वजह से राज्य को इतनी छूट मिली कि वह जनता के जीवन हितों को व्यापक तौर पर प्रभावित करने वाले नाागरिक अधिकारों को अपनी मर्जी के अनुसार लागू करे। समाज में जारी विवाद तथा तनाओं को कम करने के लिए किसी तरह के लोकतंात्रिक समाधान करने के बजाय औपनिवेशिक कानूनों का सहारा लेकर दमन तथा उत्पीड़न को और तेज किया गया। आपात काल के दौरान सरकार ने सभी तरह के असंवैधानिक व्यवहारों को लागू किया जबकि आपातकाल किसी तात्कालिक संकट का परिणाम कत्तई नहीं था और कुछ भी अपरिहार्य नहीं था। तब से राज्य सत्ता द्वारा ‘‘वैधानिक हिंसा’’ मुख्यधारा की राजनीति का अनिवार्य अंग बन गई है।

निश्चित तौर पर संविधान निर्माण की प्रक्रिया, जिसने भारत में राजनीतिक गणतंत्र की नींव रखा तथा जो खुद ही ब्रिटिश संसद के एक अधिनियम द्वारा निर्देशित थी, के संस्थानिक उत्स अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शासन में निहीत थे। भारत की संविधान सभा का निर्माण ब्रिटिश संसद में पारित ‘भारत परिशद अधिनियम, 1935’ द्वारा हुआ था। इस शासन व्यवस्था के सभी संस्थान जैसे संसद, संघीय ढाँचे, नौकरशाही, न्यायपालिका, कानूनी प्रक्रिया तथा नागरिक दंड संहितायें, 1860 की दंडसंहिता जिसका जन्म ‘भारत रक्शा अधिनियम 1858’- जो 1857 के जन विद्रोह को कुचलने तथा दुबारा रोकने के लिए बनाया गया था-, 1861 का पुलिस कोड सहित अन्य तमाम संस्थान अंग्रेजों के शासन की देन थे। अधिकांश मामलों में उत्तर औपनिवेशिक गणतांत्रिक संविधान ने चंद प्रतिनिधियों के सहयोग से ‘हम भारत के लोग’ कहकर राश्ट्र को संप्रभुता को दर्जा तथा इन संस्थानों को वैधानिकता प्रदान कर दिया। (राय 2003)

एक भारतीय शोधार्थी ने इस तरह की अन्य सभाओं के बारे में अध्ययन करते हुए लिखा है कि ‘फिलाडेल्फिया संवैधनिक सम्मेलन (1787) तथा फ्रांस की राश्ट्रीय सभा (1789-91) दोनों राश्ट्रीय क्रांतियों के व्यापक उत्कर्श का परिणाम थी जबकि दूसरी ओर भारत की संविधान सभा मजबूत जन आंदोलन के प्रभाव के फलस्वरूप हुए एक समझौते का परिणाम थी न कि स्वयं जनआंदोलन की उपज थी। चैबे (1975)

राश्ट्रीय आंदोलन के दौरान वर्गीय अंतविरोध भी नहीं सुलझ सके जिसका स्पश्ट प्रभाव संविधान सभा निर्माण में दिखा। गृह मंत्रालय के नौकरशाहों ने औपनिवेशिक काल के ‘निवारक कानूनों’ की समीक्शा हेतु गठित होने वाले ‘सलाहकार बोर्ड’ के प्रावधान पर आपत्ति किया जिसका इस्तेमाल ‘सत्ता के भरपूर दुरूपयोग’ के लिए होता था। वहीं दूसरी ओर ‘संपत्ति के अधिकार’ को सामजिक मान्यता दे दी गई जिससे जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन नहीं हो पाया। इन अंर्तविरोधों के कारण मौलिक अधिकारों को संवैधानिक संरक्शण मिलने के बाद भी नागरिक अधिकारों के क्रियान्वयन के प्रति परस्पर विरोध उत्पन्न होता रहा। संविधान के अन्य हिस्सों में ही वर्णित प्रावधानों से नागरिक अधिकारों की व्याख्या तथा क्रियान्वयन की पहल आधी-अधूरी साबित होती है। कानूनी दृश्टि के अनुसार ‘‘संविधान मे निरोधक कानूनों की समानांतर व्यवस्था ने ऐसी स्थिति को जन्म दिया है कि प्रस्तावना, भाग तीन तथा चार में वर्णित अधिकारों की अवधारणा स्वयं नकार दी जाती है।’’

उत्तर औनिवेशिक भारतीय राज्य तथा इसके विभिन्न संस्थानों ने समय-समय पर ऐसी ही निरोधक कानूनों का प्रयोग करके जनता पर भारी दमन थोपा है। मीसा, इस्मा, कोफेपेसा, आफ्सा, टाडा तथा पोटा समेत तमाम तरह के ‘विशेश सुरक्शा अधिनियमों’ के प्रावधानों से नागरिक आजादी को ‘अपराध’ की श्रेणी में डाल दिया गया। सीमा सुरक्शा बल, केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्शा बल, केन्द्रीय रिर्जव पुलिस बल, ब्लैक कैट, रिजर्व एक्शन फोर्स, सेना तथा ब्ठप् एवं त्।ॅ जैसी गुप्तचर एजेंसियों ने बगैर किसी पारदर्शिता के लगातार इनका प्रयोग किया है। निरोधक कानूनों का प्रयोग मुख्यतः प्रत्यक्श साम्राज्यवादी दौर के क्पेजनतइमक ंतमं ंबज के आधार पर किया जाता रहा है। ( राय 2003) इस आधार पर संविधान द्वारा प्रदत नागरिक तथा राजनीतिक अधिकार, सरकार की मनमौजी पर निर्भर रहे हंै।

70 के दशक में, उपरोक्त परिस्थितियों ने स्वतंत्र नागरिक अधिकार आंदोलन के उदय के भौतिक अधारों को मजबूत बनाया।

1976 में भारत में नागरिक अधिकार अंदोलन के उदय की वैचारिक तथा राजनीतिक आधार पर तीन धारायें थी। पहला गाँधीवादी माॅडल जिसका नेतृत्व समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। जिनकी व्यक्तिगत छवि बेहद साफ सुथरी थी। उन्हांेने कभी भी कोई ‘पद’ ग्रहण नहीं किया। जयप्रकाश नारायण ने शैक्शणिक संस्थानों के युवाओं को शक्ति का प्रमुख केन्द्र मानकर संसदीय स्तर पर ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया। सार्वजनिक संस्थानों में भ्रश्टाचार की गहरी जड़ों से परेशान शहरी तबकों ने इसे सहयोग दिया।

दूसरी प्रमुख धारा 70 के दशक के पूर्वाद्ध में शुरू हुए नक्सलवादी आंदोलन की थी जिनका प्रमुख कार्यक्शेत्र उस वक्त प0 बं0, आंधप्रदेश तथा केरल था और जो भारतीय लोकतंत्र को ‘बुर्जुवा लोकतंत्र’ तथा मुख्यधारा की कम्युनिश्ट पार्टियों को संशोधनवादी कहकर, जनता के क्रांतिकारी उत्थान द्वारा अपनी सत्ता की स्थापना करना चाहते थे। उनके कार्यक्रमों को लक्शित लोगों की व्यापक सहानुभूति न मिलने तथा राज्यसत्ता द्वारा ‘मुठभेड़’ आदि के नाम पर छेड़े गए भयंकर दमन के कारण यह आंदोलन जल्द ही अपनी लोकप्रियता खो बैठा। ‘आपातकाल’ के दौरान इनके सबसे प्रमुख नेताओं को भी हिरासतों में भयंकर यातनायें दी गई और युवाओं की एक पूरी जमात को ‘नक्सलवादी’ कहकर खत्म कर दिया गया।

तीसरी धारा राश्ट्रीयता तथा आत्मनिर्णय के लिए संघर्श कर रही शक्तियों से प्रभावित थी, जिसमें प्रमुख तौर कश्मीर, मणिपुर, नागालैण्ड, के नागरिक अधिकार संगठन थे।

आपातकाल में प्रधानमंत्री द्वारा सभी तरह के विरोधियों को आतंकित करने, उनका दमन करने के कारण तथा आपातकाल के बाद भी लगभग उसी तरह की स्थितियों की निरंतरता के कारण लोगों ने वैकल्पिक दृश्टिकोणों की तरफ ध्यान देना शुरू किया। आपातकाल द्वारा सबसे ज्यादा प्रभावित राजनीतिक पार्टियाँ भी कांग्रेस के इस दमनकारी कदम से उत्पन्न व्यापक असंतोश को कोई स्थायी समाधान नहीं दे र्पाइं। फलस्वरूप 80 में कांग्रेस दुबारा सत्ता में आई। इससे भारतीय राजनीति में तानाशाही प्रवृतियों को बढ़ावा मिला और राजनीतिक तौर पर नागरिक अधिकारों के बारे में संकीर्ण सामाजिक आधारों को और मजबूत होने का मौका मिला। मुख्यधारा की राजनीति में दिनोंदिन अपराधी, लंपट, दलाल तथा भ्रश्ट प्रवृ़ित्तयाँ फलती फूलती रहीं। संसदीय पार्टियों का जनाधार बिल्कुल सिकुड़ता गया और पिछले एक दशक से तो किसी भी पार्टी को स्पश्ट जनादेश नहीं मिल सका है। मुख्यधारा की राजनीति में व्याप्त अपराधीकरण तथा मूल्यहीनता के कारण जनता का मोहभंग हुआ। इससे उपजी शून्यता को भरने के तौर पर ही नागरिक अधिकार आंदोलन को किसी चुनावी धारा से स्ववंत्र होकर विकसित होने का मौका मिला।

वैश्वीकरण के संदर्भ में नागरिक आजादी

उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों में फलस्वरूप नागरिक आजादी की संपूर्ण संरचना उसके उद्देश्यों तथा नीतियों में व्यापक परिर्वतन आया। वैश्वीकरण के प्रोजेक्ट्स के क्रियान्वयन की कोशिशों से स्थितियाँ भयावह हो रही है। ‘चंद निगमित घरानों’ तथा अंतरराश्ट्रीय व्यापारिक व आर्थिक संस्थानों- विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक तथा अतंररांश्ट्रीय मुद्रा कोश- के हितों से प्रभावित/संचालित विकास की अवधारणाओं के तहत नागरिक अधिकारों के दायरों को सीमित करने का पूरा इंतजाम है। इन विकास नीतियों का खुला सच है कि इनसे दलितों, वंचितों, शोशितों की हालत और दयनीय होती जा रही है। मेहनतकश समुदाय के अधिकार छीने जा रहे है और लोगों को उनके जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया जा रहा है। भारी आबादी के विस्थापन के कारण वृहद पैमाने पर सामाजिक, राजनीतिक उथल-पुथल का माहौल निर्मित हुआ है। पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधनों समेत सभी प्रकार के जीव-जंतुओं के विनाश ने पूरे मानव समुदाय को विकट संकट की ओर अग्रसर कर दिया है।

और दुनिया की लगभग सभी सरकारें एक मत से इन वैश्विक निगमित घरानों के हितों को साधने में अपनी पूरी निश्ठा से जुटी हुई है। लोकतंात्रिक मूल्यों की स्थापना हेतु संघर्श, मूलभूत मानवाधिकारों के सर्वसुलभ क्रियान्वयन तथा नागरिक आजादी के संरक्शण का वास्तविक एजेंडा किसी देश की सरकार का नहीं है। उल्टे, कार्पोरेट घरानों की चैंपियन सहभागी के रूप में सरकारें अस्त्र-शस्त्रों की अकूत आपूर्ति का प्रमुख स्त्रोत बन गयी है। वर्तमान वैश्विक राजनीति की शब्दावली में दो ‘शब्द’ की वर्चस्व में है। पहला ‘विकास’ तथा दूसरा ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’। यह शब्दावलियाँ आने वाली पीढ़ियों की चेतना को कुंद करने के लिए शब्दों के मायनें उलट रहीं हैं।

‘लोकतंत्र, समानता तथा शांति’ को बहाल करने के नाम पर साम्राज्यवादी तथा उनकी सहयोगी शक्तियाँ पूरी दुनिया को फिर से युद्ध में झोंक रहीं है। अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर ‘झूठ’ के आधार पर भ्रामक शब्दों को गढ़कर हर तरह के उत्पीड़न केा अंजाम दिया जा रहा है। इनका विरोध करने वाले लोगों के विचारों तथा उनकी छवियों को ‘विकास विरोधी’ कहकर तोड़ा मरोड़ा जा रहा है।

विश्व की व्यापारिक संस्थायें राज्य-सरकारों को सीधे कर्ज उपलब्ध करा रहीं है। स्थानीय संस्थानों का दोहन करने हेतु गुप्त तथा भ्रामक समझौते हो रहे हैं। वैश्वीकरण की नीतियों ने राश्ट्र-राज्य की संप्रभुता पर चैतरफा आक्रमण किया है। वर्तमान युग की इससे बड़ी विडंबना और कुछ नहीं हो सकती कि ‘लोकतांत्रिक’ होने का डींग हाँकने वाले नीतियों के बारे में ‘अल्पमत’ से सत्ता में आयी सरकारें आनन-फानन में फैसले कर रही हैं। ‘ढाँचागत समायोजन’ तथा उदारीकरण को लागू करने वाली आर्थिक नीतियों के बारे में, आधी अधूरी संसद में, बिना किसी लोकप्रिय जनादेश के ‘अल्पसंख्यक’ सरकार ने फैसला लिया। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि यह प्रक्रिया सन् 75 से ही चली आ रही है जब प्रधानमंत्री द्वारा अपने कैबिनेट या संसद में बिना किसी बहस के देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। देश की व्यापक जनता को प्रभाविक करने वाली लगभग सभी नीतियों में यह बात आसानी से देखी जा सकती है।

उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के ही पृश्ठभूमि में धार्मिक कट्टरता-विशेशकर बहुसंख्यक संाप्रदायिकता- के राजनीतिक उभार को व्याख्यायित किया जाना चाहिए। सन् 90 से पहले 1984 में सिख धर्म के अनुयायियों का सामूहिक नरसंहार हो या 90 के बाद मुसलमानों के प्रायोजित नरसंहार। बेहद कमजोर लोकतांत्रिक ढाचे के कारण बहुसंख्यक संाप्रादायिक ताकतें इन बर्बर नरसंहारों को अंजाम देने में सफल रही। संवैधानिक तौर पर एक ‘धर्म निरपेक्श’ राश्ट्र की राज्य सत्ता ने इन धार्मिक उन्मादों को कई बार बाकायदा प्रायोजित करवाया। लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्श राज्य अपनी कमजोरियों के कारण इस तरह की सामाजिक तथा राजनीतिक विद्वेश पर आधारित हिंसा से निपटने में सदैव ही पूरी तरह से अक्शम रहा। परिणामस्वरूप उत्तर औपनिवेशिक भारतीय राज्य हिंसा तथा दमन के विशिश्ट चक्र को मजबूत बनाते हूए सामाजिक तनावों/विवादों के जबर्दस्त दमन पर ही टिका रहा। (राय 2003) इन सभी कारणों से जिस असुरक्शा का वातावरण पूरे देश में निर्मित हुआ है उससे लोग अपने लोकतंात्रिक अधिकारों का प्रयोग करने से कतराने लगे है। सुरक्शा की अवधारणा ‘राज्य केन्द्रित’ होकर रह गयी है जबकि किसी भी लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज की बुनियादी शर्त है कि जनता के जीवन में राज्य का हस्तक्शेप कम से कम हो। नई आर्थिक नीतियों के सफलता की अनिवार्य शर्त यह है कि राज्य सत्ता पूरे समाज का सैन्यीकरण कर दे। पिछले बीस वर्शों में एशिया के विभिन्न देशों के साथ अमरीकी सेनाओं के संयुक्त सैन्य अभियानों में भारी वृद्धि इस धारणा को और स्पश्ट करती है।

बहुराश्ट्रीय कंपनियों से ‘विकास’ के नाम पर समझौते, फिर कंपनियों द्वारा स्थानीय संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए स्थानीय लोगों को उनकी जमीन से बेदखल कर विस्थापित करना, फिर जमीन बचाने के लिए संघर्शरत जनता के प्रतिरोध को सैन्य शक्ति से कुचलना सरकारों का प्रमुख दायित्व बन गया है। ‘‘विशेश आर्थिक क्शेत्रों’’ के शासन की स्थापना की कोशिशों के कारण व्यापक पैमाने पर विस्थापन हो रहा है और एक बेहद ही असमान दुनिया का निर्माण हो रहा है। इससे पैदा होने वाली विकृतियों से निपटने के लिए किसी तरह की पारदर्शी तथा स्थायी पुर्नवास नीतियाँ नहीं है। और सबसे प्रमुख बात कि यह सब अंग्रेजों द्वारा लागू किये गये औपनिवेशिक कानूनों के आधार पर किया जा रहा है।

नागरिक आजादी आंदोलन तथा इसके कार्यकर्ताओं का दमन

नागरिक अधिकार आंदोलन के इतिहास में यह पहली बार नहीं है जब विभिन्न सत्ताधारी संरचनाओं ने इन पर भयंकर दमन तथा आतंक थोप दिया है। साम्राज्यवादी युग तथा हिटलर के फासीवादी दौर से लेकर वतर्मान वैश्वीकरण की दुनिया के बीच नागरिक अधिकारों पर बर्बर हमलों का एक लंबा सिलसिला रहा है। राज्य तथा इसके लंपट, गंुडों ने निजी सेना बनाकर नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं पर जघन्य आक्रमण किया है। पिछले बीस वर्शो में विभिन्न नागरिक अधिकार संगठनों के अनुभव हमे बताते है कि राज्य नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा ‘असहिश्णु’ हुआ है। जिस किसी ने भी राज्य की विध्वंसक परियोजनाओं, इसके दमनकारी चरित्र तथा जनविरोधी नीतियों की आलोचना का साहस किया उसकी आजादी छीन ली गयी, उसे रोजगार से वंचित कर दिया गया और कई बार उसे अंततः मार डाला गया।
नागरिक अधिकार आंदोलनों ने जनता को सदैव शिक्शित करने का प्रयास किया है। चाहे वह उपलब्ध न्यायिक संभावनाओं द्वारा हो या किसी मुद्दे की असलियत जनता के समाने रख कर किया हो। संविधान द्वारा नागरिक अधिकारों के सफल क्रियान्वयन पर जोर, नीतिनिर्देशक तत्वों को लागू करने तथा संयुक्त राश्ट्र संघ द्वारा विभिन्न अधिकारों के अंतर्राश्ट्रीय मसौदों के पालन हेतु लोगों को शिक्शित करना, संगठित करना लगभग सभी नागरिक अधिकार संगठनों का प्रमुख उद्देश्य रहा है।

संाप्रदायिक, जातीगत तथा लिंग आधारित हिंसाओं कि भौतिक तथा वैचारिक दशाओं का विश्लेशण कर उसकी आलोचना सर्वप्रथम इन्ही संगठनों ने किया। समाजिक, आर्थिक विशमताओं के जड़ में मौजूद दलितों, आदिवासीयों के शोशण तथा उन पर अन्याय, अत्याचार के बारे में सामाजिक तौर पर जागरूक किया।

भोजन के अधिकार, सूचना के अधिकार, आवास के अधिकार समेत मूलभूत जरूरतों की आकंाक्शाओं को नागरिक अधिकार आंदोलन ने जनहित याचिका द्वारा न्यायिक सक्रियता की परिधि में लाया।
नागरिक आजादी पर यकीन रखने वालों के लिए यह बहुत मुश्किल वक्त है। आंदोलन के शुरूआती दिनों में नागरिक संगठनों का सबंध कई विदेशी खुफिया ऐजेंसियों से जोड़ने कि कोशिश की गई ताकि उन्हे बदनाम किया जा सके। लेकिन जब अपने कामों द्वारा नागरिक अधिकार संगठन जनता का विश्वास जीत पाने में सफल हो गये तो अब उनपर ‘राश्ट्रीय सुरक्शा’, ‘विशेश सुरक्शा’ तथा ‘गैर कानूनी गतिविधि निवारक कानून’ आदि के अधारों पर दमन कारी कार्यवाईयाँ की जा रही है। देश में भूख और गरीबी से मौतों की संख्या बढ़ रही है, किसान आत्महत्याएँ बढ़ रही है, ठंड, गर्मी और बरसात से हर साल सैकड़ों लोग अपनी जान गवाँ देते है, संप्रदायिक तथा जातिगत हिंसा समाज में भारी असुरक्शा का माहौल व्याप्त है।

देश में विंध्वंसक विकास नीतियों के खिलाफ जैसे-जैसे लोगों का आक्रोश फूट रहा है वैसे ही राज्य द्वारा संगठित हिंसा में बढ़ोत्तरी हो रही है। देश के कई हिस्सों में राज्य ने अपनी ही जनता पर युद्ध थोप दिया है। उ0 पूर्व के लगभग सभी राज्यों, कश्मीर, गुजरात, छŸाीसगढ़, कर्नाटक, महाराश्ट्र, उत्तर प्रदेश, झारखंड तथा आध्रप्रदेश सहित देश के सभी हिस्सों में राज्य का दमनकारी चरित्र गहरा होता जा रहा है। ‘मुठभेड़’ के नाम पर पुलिस बल दिनदहाड़े हत्याये कर रहे हंै। हिरासत में लिए गये लोगों को अमानवीय यातनायें दी जा रही है। जेलों में आज भी लाखों लोग अमानवीय स्थितियों में अपना जीवन गुजार रहे है।

समता मूलक समाज के निर्माण की बुनियादी शर्त है कि ‘असमान सत्ता संतुलन’ पर टिके इस समाज के ढाँचे में परिर्वतन हो। भेदभावों, असमानताओं तथा फौजी बूटों पर टिकी संरचना को ध्वस्त किये बगैर नागरिक अधिकार तथा आजादी का सम्मान हमेशा एक दूरगामी लक्श्य बना रहेगा। मैं अपनी बात रीनहोल्ड नीब्रूह की पुस्तक डवतंस उंद ंदक पउउवतंस ेवबपमजल के एक उद्धरण से खत्म करना चाहूँगा कि ‘‘सत्ता को सिर्फ सत्ता द्वारा ही चुनौती दी जा सकती है क्योंकि सामाजिक असमानता तथा अन्याय सिर्फ नैतिक और निरपेक्श दृश्टिकोणों (विवेकशील विश्वासों) द्वारा दूर नहीं किए जा सकते।’’

स्त्रोतों से उदृधत् जानकारियों का अनुवाद लेखक द्वारा स्वयं किया गया है।

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लेखक म. गा. अ. हि. विश्वविद्यालय, वर्धा में जनसंचार विभाग के छात्र है।

© 2012 Anil; Licensee Argalaa Magazine.

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